Saturday, January 23, 2010

शरद पवार ने कहा कि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ : शेष नारायण सिंह

केंद्रीय कृषि और खाद्य मंत्री ,शरद पवार ने एक बार फिर वह काम किया है जिसके लिए उन्हें गरीब आदमी कभी माफ़ नहीं करेगा.एक बार फिर उन्होंने सरकार के संभावित फैसले को लीक कर के महंगाई के नीचे पिस रही जनता को भूख से मरने वालों की अगली कतार में झोंक दिया है .उन्होंने एक बयान दे दिया है कि आने वाले कुछ दिनों में दूध की कीमतें भी बढ़ने वाली हैं ... उनके इस बयान का असर यह हुआ है कि अभी सरकार तो पता नहीं कब दूध की कीमतें बढायेगी, लेकिन आज सुबह से ही दूध वालों ने निरीह मिडिल क्लास के लोगों से दूध की ज्यादा कीमतें वसूलना शुरू कर दिया है ...अभी कुछ हफ्ते पहले उन्होंने चीनी की कीमतें बढ़ने की चेतावनी दे कर चीनी के जमाखोरों को आगाह कर दिया था कि चीनी की मूल्यवृद्धि के बहाने आम आदमी की जेब पर हमला बोलने का वक़्त आ गया है ..जमाखोरों और मुनाफाखोरों ने उनकी उस सूचना का फायदा भी उठाया और चीनी की कीमतें आसमान तक पंहुच गयी.चीनी के जमाखोरों को फायदा पंहुचाने की बात समझ में आती है क्योंकि शरद पवार को आम तौर पर शुगर लॉबी का एजेंट माना जाता है और वे खुद भी कई चीनी मिलों में हिस्सेदार हैं . इस देश में इस बात का इतिहास रहा है कि शुगर लॉबी वाले और चीन मिल मालिक सरकार में शामिल अपने बन्दों की मदद से मुनाफाखोरी करते रहे हैं . शरद पवार तो पहले से ही शुगर लॉबी के आदमी माने जाते हैं. इसलिए जब उन्होंने चीनी की कीमतों को बढाने की चीनी मिल मालिकों और जमाखोरों की साज़िश में सरगना के रूप में हिस्सा लेना शुरू किया तो लोगों को लगा कि एक भ्रष्ट मंत्री को जो करना चाहिए, कर रहा है . जनता चीनी की बढ़ती कीमतों का तमाशा देखती रही और त्राहि त्राहि करती रही. दुनिया जानती है कि चीनी की कीमत बढ़ने से बहुत सारी चीज़ों की कीमतें अपने आप बढ़ जाती हैं . शरद पवार को कोई फर्क नहीं पड़ा. वे नीरो की तरह अपने काम में लगे रहे . जिस तरह जब रोम में आग लगी थी तो नीरो बांसुरी बजा रहा था उसी तरह जब चौतरफा राजनीतिक दबाव के बाद बुरी तरह घिर चुकी सरकार ने कुछ करने की कोशिश की तो सरकारी सख्ती को बिलकुल बेकार करने की गरज से शरद पवार ने कहा कि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ जो चीनी की कीमतों को कम करने के बारे में कोई तारीख बता सकूं. इसका सीधा मतलब यह था कि शरद पवार ने चीनी के जमाखोरों को आश्वस्त कर दिया था कि घबड़ाओ मत अभी कुछ नहीं होने वाला है . लूटमार बदस्तूर जारी रही और जब केंद्र सरकार ने लोकलाज से बचने के लिए खाद्यमंत्री को टाईट किया तो उन्होंने फरमाया कि अभी चीनी की कीमतें कम होने में दस दिन लगेंगें . इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने साफ़ भरोसा दे दिया चीनी के जमाखोरों और मुनाफाखोरों को कि अभी दस दिन तक का समय है अपना सारा हिसाब किताब दुरुस्त कर लो.. स्वतंत्र भारत के इतिहास में एक से एक भ्रष्ट और गैर ज़िम्मेदार मंत्री हुए है लेकिन लगता है कि शरद पवार उस लिस्ट में सबसे ऊपर पाए जायेंगें .. . शरद पवार को एक और काम में भी महारत हासिल है .अपनी शातिराना साजिशों के असर का ज़िम्मा किसी और के ऊपर मढ़ देने में भी उनका जवाब नहीं है .. जब पिछले दिनों चौतरफा महंगाई के लिए उनसे मीडिया ने सवाल किया तो उन्होंने कहा कि राशन की दुकानों और गरीबी के रेखा के नीचे के लोगों का काम राज्य सरकारों के जिम्मे है और राज्य सरकारें अपना काम सही तरीके से नहीं कर रहीहैं इसलिए महंगाई पर काबू पाने में दिक्क़त हो रही है . . चीनी की कीमतें बढाने के साज़िश में शरद पवार के शामिल होने की बात में आम तौर किसी शक की गुंजाइश नहीं है . लेकिन केंद्रीय सरकार में विभिन्न व्यापारिक हितों के प्रतिनिधियों के शामिल होने की वजह से भी खाने पीने की चीज़ों के दाम आसमान छू रहे हैं . महंगाई का एक बड़ा कारण यह भी है कि अनाज के वायदा कारोबार का काम भी शुरू हो गया है . यानी जमाखोरों को इस बात की छूट है कि वे जितना चाहें ,उतना अनाज जमा कर के कीमतें बढ़ने पर बेचें ..इसकी वजह से बहुत बड़े पैमाने पर आनाज जमाखोरों के गोदामों में जमा है . हालांकि यह बात अखबारों में ठीक से प्रचारित नहीं की गयी है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अमरीका की सबसे बड़ी निजी क्षेत्र की कंपनी कारगिल भी पिछले कुछ वर्षों से देश में बहुत बड़े पैमाने पर अनाज की खरीद कर रही है . उसने जिलों में अपने कर्मचारी तैनात कर रखे हैं जो एफ सी आई से ज्यादा कीमत पर गेहूं और धान की खरीद कर रहे हैं . इस खरीद का सारा हिस्सा सीधे वायदा कारोबार के हवाले हो जाता है . इसका एक तोला भी राशन की दुकानों या सार्वजनिक वितरण की प्रणाली में नहीं जाता . ज़ाहिर है इसकी वजह से कृत्रिम कमी के हालात बन रहे हैं ...यही हाल चीनी का भी है .. सवाल उठता है कि कारगिल को तो शरद पवार ने देश में अनाज खरीदने की अनुमति नहीं दी . , उसके लिए तो अमरीका परस्ती की केंद्र सरकार की नीतियाँ ही ज़िम्मेदार मानी जायेंगीं. .पता लगाने की ज़रुरत है किअपने देश में इस तरह से खुले आम खरीद करने की अनुमति कारगिल जैसी कंपनी को किसने दी है . कारगिल की भयावहता के बारे में अभी भारत में जानकारी का अभाव है. यह वही कंपनी है जिसने लातिन अमरीका के कई देशों में खाने पीने की चीज़ों की कृत्रिम कमी का माहौल बनाया और वहां खाद्य दंगें तक करवाए. कारगिल अफ्रीका के कई देशों में सरकारे गिराने का काम भी कर चुका है .. . दुनिया में कई देशों की सरकारें कारगिल की नाराज़गी झेल चुकी हैं और उन्हें अपदस्थ भी होना पड़ा है ..अमरीकी प्रशासन में भी इस कंपनी की तूती बोलती है .. इस बात की जांच करना दिलचस्प होगा कि किस राजनेता ने कारगिल को देश में काम करने की अनुमति दी है . खाद्य सामग्री की कमी का ज़िम्मा उस व्यक्ति पर भी डालना पडेगा. ..
केंद्र सरकार में बैठे लोगों को यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि आम आदमी की पंहुच से खाने पीने की चीज़ों को हटा कर , संविधान के उस मूल अधिकार का भी उन्ल्लंघन हो रहा है जिसके तहत संविधान से सभी नागरिकों को राईट तो फ़ूड का प्रावधान किया है .. जो सरकार दो जून की रोटी के लिए भी आम आदमी को तरसाने की फ़िराक़ में है उसे सत्ता में बने रहने का कोई अधिकार नहीं है .... ऐसा नहीं है कि नागरिकों के सामने से रोटी का निवाला छीनने के लिए केवल शरद पवार की ज़िम्मेदार हैं . मौजूदा केंद्र सरकार में और भी ऐसे सूरमा मंत्री हैं जो जनता के पेट पर लात मार कर अपनी पूंजीपति आकाओं को खुश करने के लिए तड़प रहे हैं ... अभी पिछले हफ्ते एक श्रीमान जी को जनता के गुस्से से घबडाई केंद्र सरकार ने रोका वरना वे तो डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें भी बढाने जा रहे थे . सबको मालूम है कि पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें बढ़ने से चौतरफा महंगाई आती है ..लेकिन आज पूंजीपतियों के हुक्म की गुलाम सरकार से कोई उम्मीद करना बिलकुल ठीक नहीं है . हाँ यह उम्मीद की जा सकती है कि मौजूदा सरकार अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए ही सही , अनाज, चीनी और पेट्रोल की कीमतों के ज़रिये आम आदमी को लूटने के लिए बैठे पूंजी पतियों को थोडा बहुत काबू में करेगी क्योंकि अगर ऐसा न हुआ और जनता सडकों पर आ गयी तो तब तो ताज भी उछलेंगें और तख़्त भी उछाले जायेंगें ...

Monday, January 4, 2010

सांस्कृतिक हस्तक्षेप भी तय करता है राजनीति की दिशा

शेष नारायण सिंह # २१ साल पहले सफ़दर हाशमी को दिल्ली के पास एक औद्योगिक इलाके में मार डाला गया था .वे मार्क्सवादी कमुनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे . उनको मारने वाला एक मुकामी गुंडा था और किसी लोकल चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार था. अपनी मौत के समय सफ़दर एक नाटक प्रस्तुत कर रहे थे . सफ़दर हाशमी ने अपनी मौत के कुछ साल पहले से राजनीतिक लामबंदी के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप की तरकीब पर काम करना शुरू किया था. कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत सारे बड़े लोगों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे थे वे. सफ़दर की मौत के बाद दिल्ली और फिर पूरे देश में ग़म और गुस्से की एक लहर फूट पड़ी थी . जो काम सफ़दर करना चाहते थे और उन्हें कई साल लगते, वह एकाएक उनकी मौत के बाद स्वतः स्फूर्त तरीके से बहुत जल्दी हो गया. देश के हर हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग इकठ्ठा होते गए और सफ़दर की याद में बना संगठन, सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट ,'सहमत' एक ऐसे मंच के रूप में विकसित हो गया जिसके झंडे के नीचे खड़े हो कर हिन्दू पुनरुत्थानवाद को संस्कृति का नाम दे कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले आर एस एस के मातहत संगठनों को चुनौती देने के लिए सारे देश के प्रगतिशील संस्कृति कर्मी लामबंद हो गए.


राजनीतिक उद्देश्यों के लिए संस्कृति के आधार पर जनता को लामबंद करने की पश्चिमी देशो में तो बहुत पहले से कोशिश होती रही है लेकिन अपने यहाँ ऐसी कोई परंपरा नहीं थी .१८५७ में अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ जो एकता दिखी थी , उस से ब्रितानी साम्राज्यवाद की चिंताएं बढ़ गयी थी, भारत का हिंदू और मुसलमान एक दूसरे के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर जिस तरह से खड़ा हो गया था , वह भारत में साम्राज्यवादी शासन के अंत की चेतावनी थी . हिन्दू और मुसलमान की एकता को ख़त्म करने के लिए अंग्रेजों ने बहुत सारे तरीके अपनाए . बंगाल का बंटवारा उसमें से एक था. लेकिन जब अंग्रेजों के खिलाफ १९२० में महात्मा गाँधी के नेतृत्व में हिन्दू और मुसलमान फिर लामबंद हो गए तो अंग्रेजों ने इस एकता को खत्म करने केलिए सक्रिय हस्तक्षेप की योजना पर काम करना शुरू कर दिया..१९२० के आन्दोलन के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटेन को भारत की अवाम की ताक़त से दहशत पैदा होने लगी थी .सने भारत में सांस्कृतिक हस्तक्षेप के लिए सक्रिय कोशिश शुरू कर दी. अंग्रेजों के वफादारों की फौज में ताज़े ताज़े भर्ती हुए पूर्व क्रांतिकारी ,वी डी सावरकर ने १९२३-२४ में अपनी किताब "हिन्दुत्व-हू इज ए हिन्दू " लिखी जिसे आगे चल कर आम आदमी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भोथरा करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने वाला था .इसी दौर में आर एस एस की स्थापना हुई जिसके सबसे मह्त्वपूर्ण उद्देश्यों में पिछले हज़ार साल की गुलामी से लड़ना बताया गया था . इसका मतलब यह हुआ कि गाँधी जी के नेतृत्व में जो पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ लामबंद हो रहा था, उसका ध्यान बँटा कर उसे मुसलमानों की सत्ता के खिलाफ तैयार करना था . ज़ाहिर है इस से अँगरेज़ को बहुत फायदा होता क्योंकि उसके खिलाफ खिंची हुई भारत के अवाम की तलवारें अंग्रेजों से पहले आये मुस्लिम शासकों को तलाशने लगतीं और अँगरेज़ मौज से अपना राजकाज चलाता रहता . सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत सावरकर की इसी किताब के गर्भ से निकलता हैं. आर एस एस और सावरकर की हिन्दू महासभा के ज़रिये, अवाम को बांटने की अँगरेज़ की इस कोशिश से महात्मा गाँधी अनभिज्ञ नहीं थे . शायद इसी लिए उन्होंने अपने आन्दोलन में सामाजिक परिवर्तन की बातें भी जोड़ दीं. लेकिन दंगों की राजनीति का इस्तेमाल करके हिन्दू और मुसलमानों की एकता को खंडित करने में ब्रितानी साम्राज्य को सफलता मिली . १९२७ में आर एस एस ने नागपुर में जो दंगा आयोजित किया, बाद में बाकी देश में भी उसी माडल को दोहराया गया . नतीजा यह हुआ कि भारत के आम आदमी की एकता को अंग्रेजों ने अपने मित्रों के सहयोग से खंडित कर दिया .

वामपंथी राजनीतिक सोच के लोगों ने संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय होने के लिए पहली बार १९३६ में कोशिश की . प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ और उसके पहले अध्यक्ष ,हिन्दी और उर्दू के बड़े लेखक , प्रेमचंद को बनाया गया.इसी दौर में रंगकर्मी भी सक्रिय हुए और नाटक के क्षेत्र में वामपंथी सोच के बुद्धिजीवियों का हस्तक्षेप हुआ. इप्टा का गठन करके इन लोगों ने बहुत काम किया . लेकिन यह जागरूकता १९४७ में कमज़ोर पड़ गयी क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आज़ादी मिली थी उसकी वजह से आम आदमी की सोच प्रभावित हुई. वैसे भी राष्ट्रीय चेतना के निगहबान के रूप में कांग्रेस का उदय हो चुका था.. जनचेतना में एक मुकम्मल बदलाव आ चुका था लेकिन वामपंथी उसे समझ नहीं पाए और इसमें बिखराव हुआ.उधर गाँधी हत्या केस में फंस जाने की वजह से आर एस एस वाले भी ढीले पड़ गए थे . १९६४ में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना करके संघ ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दू पुनरुत्थानवाद की राजनीति के स्पेस में काम करना शुरू कर दिया. लेकिन उनके पास कोई आइडियाज नहीं थे इसलिये खीच खांच कर काम चलता रहा . वह तो १९८४ के चुनावों में बी जे पी की हार के बाद आर एस एस ने भगवान् राम के नाम पर हिंदुत्व की राजनीति को सांस्कृतिक आन्दोलन का मुखौटा पहना कर आगे करने का फैसला किया . भगवान् राम का हिन्दू समाज में बहुत सम्मान है और उसी के बल पर आर एस एस ने बी जे पी को राजनीति में सम्मानित मुकाम दिलाने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर हाशमी और उनकी पार्टी को संघ की इस डिजाइन का शायद अंदाज़ लग गया था. लगभग उसी दौर में सफ़दर ने कलाकारों को लामबंद करने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर की मौत ऐसे वक़्त पर हुई जब आर एस एस ने राम के नाम पर हिन्दू जनमानस के एक बड़े हिस्से को अपने चंगुल में कर रखा था . समझदारी की बात कोई सुनने को तैयार नहीं था लेकिन सहमत के गठन के बाद संस्कृति के स्पेस में संघ को बाकायदा चुनौती दी जाने लगी . सहमत की उस दौर की करता धर्ता , सफदर की छोटी बहन शबनम हाशमी थीं . जिन्होंने अयोध्या के मोर्चे पर ही, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनती दी और उनकी बढ़त को रोकने में काफी हद तक सफलता पायी. शायद सहमत के नेतृत्व में हुए आन्दोलन का ही नतीजा है कि आज आर एस एस के सभी संगठन बी जे पी के मातहत संगठन बन चुके हैं और सरकार बनाने के चक्कर में हरदम रहते हैं . वहीं से ज़्यादातर संगठनों का खर्चा पानी चलता है ...

सहमत आज सांस्कृतिक हस्तक्षेप के एक ऐसे माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है कि दक्षिणपंथी राजनीतिक और संस्कृति संगठन उसकी परछाईं बचा कर भाग लेते हैं ..उसका कारण शायद यह है कि सहमत के गठन के पहले बहुमत के अधिनायकत्व की सोच की बिना पर चल रहे आर एस एस के धौंस पट्टी के अभियान से लोग ऊब चुके थे और जो भी सहमत ने कहा उसे दक्षिणपंथी दादागीरी से मुक्ति के रूप में अपनाने को उत्सुक थे .सहमत के वार्षिक कार्यक्रमों में ही , ऐतिहासिक रूप से फासीवाद की पक्षधर रही शास्त्रीय संगीत की परम्परा को अवामी प्रतिरोध का हाथियार बनाया गया और उसे गंगा-जमुनी साझा विरासत की पहचान के रूप में पेश किया गया.. सहमत के गठन का यह फायदा हुआ कि कलाकारों को एक मंच मिला . बाद में जब गुजरात में मुसलमानों के सफाए के लिए नरेंद्र मोदी ने अभियान चलाया तो सबसे बड़ा प्रतिरोध उन्हें' सहमत' और शबनम हाशमी के नए संगठन 'अनहद' से ही मिला. आज भी इन्हीं दो संगठनों के बैनर के नीचे मोदी की ज्यादतियों को सिविल सोसाइटी की ओर से चुनौती दी जा रही है. आर एस एस में भी अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रास्ते सत्ता पाने की उम्मीद धूमिल हो गयी है . शायद इसीलिए अब वे नौकरशाही और पुलिस में घुस चुके अपने स्वयंसेवकों पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं ..जहां तक संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय प्रगतिशील जमातों की बात है , उनके लिए सहमत और अनहद के अलावा भी बहुत सारे मंच उपलब्ध हैं और हर जगह काम हो रहा है.. राजनीतिक एकजुटता के लिए सांस्कृतिक हस्तक्षेप को एक माध्यम बनाने की परंपरा भी रही है और संभावना भी है लेकिन बुनियादी बात आइडियाज़ की है जो दक्षिण पंथी संगठनों के पास बहुत कम होती है जबकि जन आन्दोलन के लिए संस्कृति के औज़ार ही सबसे बड़े हथियार होते हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि जब भी जन आन्दोलनों की बात होगी आम आदमी के साथ खडी जमातों को ज़्यादा सम्मान मिलेगा

Thursday, November 5, 2009

भेड़िए और मेमने की यारीः राम पुनियानी -love-ishq-jihad

संघ परिवार का एक पुराना पसंदीदा नारा था, “पहले कसाई, फिर ईसाई“। और सचमुच, संघ परिवार ने इसी क्रम में अपना हमला किया। पहले उसके निशाने पर सिर्फ मुसलमान थे। फिर, सन् 1990 के दशक से उसने ईसाईयों को भी अपनी हिंसा का निशाना बनाना शुरू कर दिया।

केरल में संघ परिवार ने एक कमाल कर दिखाया है। उसने “केरल विश्पस् काउंसिल“ के साथ “लव-जेहाद“ (इश्क-जेहाद) से लड़ने के लिए संयुक्त मोर्चा बनाया है। “इश्क-जेहाद“ शब्द को गढ़ा भी संघ परिवार ने ही है। यह दो सुंदर शब्दों को जोड़कर बनाया गया एक डरावना नया शब्द है। इसका इस्तेमाल, प्रेमियों को यंत्रणा देने के लिए किया जावेगा-उन प्रेमी युगलों को जिनमें लड़का मुसलमान है और लड़की गैर-मुसलमान। यह मुसलमानों के खिलाफ भगवा ब्रिगेड के युद्ध का नया मोर्चा है।

समाज का साम्प्रदायिकीकरण किस हद तक हो चुका है, इसका एक सुबूत यह है कि “इश्क-जेहाद“ को न केवल समाज के एक हिस्से वरन् हाईकोर्ट द्वारा भी गंभीरतापूर्वक लिया जा रहा है। सिलाजराज विरूद्ध असगर मामले में कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि मामले के तथ्यों का “राष्ट्रीय महत्व है....... और ये राष्ट्रीय सुरक्षा व महिलाओं के गैर-कानूनी व्यापार की दृष्टियों से भी महत्वपूर्ण है“। और इसलिए, हाईकोर्ट ने कर्नाटक के पुलिस महानिदेशक और पुलिस महानिरीक्षक को “इश्क-जेहाद“ की गहराई से जांच करने का आदेश दिया। जांच पूरी होने तक लड़की को उसके मां-बाप के साथ रहने का आदेश भी दिया गया। न्यायालय का यह आदेश गैर-कानूनी तो है ही, वह यह भी दर्शाता है कि हाईकोर्ट जज तक समाज में फैली भ्रांतियों और दुष्प्रचार से कितने प्रभावित हो गए हैं। क्या कोई अदालत किसी वयस्क विवाहित लड़की को उसके पति से केवल इसलिए अलग करने का आदेश दे सकती है क्योंकि लड़की के माता-पिता उसके पति के चुनाव से असहमत हैं? वह भी तब, जब पति वयस्क हो और भारत का नागरिक हो।

इसी तरह के एक अन्य मामले में, कुछ समय पहले, केरल उच्च न्यायालय ने दो अभिभावकों की अपील पर ऐसा ही निर्णय दिया था। दो हिन्दू लड़कियां अपने घरों से भागकर मुसलमान बन गईं थीं और मुस्लिम लड़कों से विवाह करने वाली थीं। अदालत ने कहा कि “इन लड़कियों की मुसलमानों से शादी एक सुनियोजित योजना के तहत हो रही प्रतीत होती है और इसका संबंध, हिन्दू महिलाओं के व्यापार से है“। केरल हाईकोर्ट ने भी पुलिस को इस कोण से पूरे मामले की जांच करने को कहा। पुलिस जांच से यह सामने आया कि “इश्क-जेहाद“ जैसी कोई चीज नहीं है।
कर्नाटक हाईकोर्ट के विवाहित लड़की को उसके मां-बाप के पास भेजने से रूष्ट, पी. यू. सी. एल. की राज्य इकाई, सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की योजना बना रही है।

इस दुष्प्रचार की शुरूआत श्रीराम सेने ने की। पूरी कहानी इस प्रकार थी- यह कहा गया था कि लगभग 4000 हिन्दू लड़कियों को मुसलमान बना लिया गया है। मुस्लिम लडकों को हिन्दू व ईसाई लड़कियों को फंसाने के लिए धन दिया जाता है। हर लड़के को एक लाख रूपये मिलते हैं, जिससे उसे एक मोटरसाईकिल, मोबाइल, फैशनेबिल कपड़े, जूते आदि खरीदने होते हैं। इसके बदले उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे कम से कम एक गैर-मुस्लिम लड़की से प्रेम का नाटक करेंगे, उसको भगाकर ले जाएंगे ओर फिर उसे मुसलमान बनाकर उससे शादी कर लेंगे। शर्तों में यह भी शामिल रहता है कि वो उस लड़की से कम से कम चार संतानों को जन्म देंगे।

यह हास्यास्पद, कपोल-कल्पित कहानी जंगल की आग की तरह कर्नाटक में फैल गई और युवा लड़कियों के अभिभावक बहुत डर गए। श्रीराम सेने के कार्यकर्ता ऐसे नव-युगलों के अभिभावकों की अदालत जाने में मदद करते हैं। ऐसे ही एक मामले में अदालत ने लड़की को मां-बाप को सौंपने का आदेश दिया था। कई लड़कियां, जो सचमुच मुस्लिम लड़कों से प्यार करती थीं और जिन्होंने अपनी मर्जी से धर्म परिवर्तन किया था, वे भी अपने मां-बाप के साथ रहने के बाद बदल गईं। अभिभावकों के “भावनात्मक ब्लेकमेल“ के आगे लड़कियों ने आत्मसमर्पण कर दिया और वे यह तक कहने लगीं कि उन पर मानसिक दबाव डाला गया था, उन्हें जेहादी सी. डी. दिखाई गईं थीं आदि-आदि।

गुजरात में भी यह अफवाह फैलाई गई थी कि मुस्लिम लड़के, आदिवासी लड़कियों को अपने जाल में फंसा रहे हैं। बाबू बजरंगी, जिसने गुजरात दंगों में जमकर खून-खराबा किया था, ने गुंडों का एक दल तैयार किया। ये गुंडा-गैंग प्रेमी युगलों पर हमला करता थी और उन युगलों को अलग-अलग कर देती थी जिनमें प्रेमी व प्रेमिका अलग-अलग धर्मों से होते थे। और यह सारी गुंडागर्दी धर्म रक्षा के नाम पर की जाती थी! हमारे सामने रिज़वान उर रहमान और प्रभावशाली कुबेरपति की लड़की प्रिंयका तुली का मामला है जिसमें प्रियंका ने अभिभावकों और रिश्तेदारों के भावनात्मक ब्लेकमेल के आगे घुटने टेक दिए थे। बाद में परेशानहाल रिज़वान ने आत्महत्या कर ली थी। ऐसे सभी मामलों में पुलिस और राज्य तंत्र का दृष्टिकोण कानून के प्रावधानों और उसकी आत्मा के खिलाफ रहता है। कानून के रक्षक उन लोगों का साथ देते हैं जो कानून की धज्जियां उड़ाते हैं।

अंतर्धार्मिक व अंतर्जातीय विवाहों के खिलाफ इस तरह के अभियान न केवल राष्ट्रीय एकीकरण को बाधित करते हैं वरन् पितृसत्तातमक व्यवस्था के अनुरूप महिलाओं के जीवन को नियंत्रित करने का प्रयत्न भी करते हैं। इस तरह के अभियान का एक अतिरिक्त लाभ यह होता है कि अल्पसंख्यकों का नया हौआ खड़ा हो जाता है जो कि संघ परिवार के समाज को बांटने के प्रयास में मदद करता है। इस तरह, संघ परिवार एक तीर से दो निशाने साध रहा है। संघ परिवार का उद्देश्य है मुसलमानों को कुचलना और समाज पर पितृसत्तातमक मूल्य लादना। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस काम में उनकी मदद एक दूसरा अल्पसंख्यक समुदाय कर रहा है-वह समुदाय जो स्वयं भी संघ परिवार के अत्याचारों का शिकार रहा है।

यह अत्यंत दुःखद है कि हमारी अदालतें, सगोत्र विवाह करने वालों को प्रताड़ित करने वाली “खाप पंचायतों'' और राम सेनाओं व बाबू बजरंगियों पर शिकंजा कसने की बजाए, उन लड़कियों के जीवन में अकारण हस्तक्षेप कर रही हैं, जो वयस्क हैं और अपनी मर्जी से दूसरे धर्म के युवक के साथ विवाह करना चाहती हैं। इससे समाज में मुस्लिम-विरोधी भावनाएं और भड़केंगी और इसके खतरनाक नतीजे हो सकते हैं।

हम सबको यह ज्ञात है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान, विभिन्न धार्मिक समुदाय एक-दूसरे के नजदीक आए और अंतर्धार्मिक व अंतर्जातीय विवाह होने शुरू हुए। ये विवाह भारतीय राष्ट्रीयता को मजबूती देते हैं।
धर्म-आधारित राष्ट्रवाद के पैरोकारों ने एक नया, कपोल-कल्पित मुद्दा गढ़कर अपनी धर्मनिरपेक्षता-विरोधी मानसिकता का एक बार फिर परिचय दिया है।

--------------
लेख 'अवामे हिन्‍द' 5 नवम्‍बर 2009 प्रकाशित, आनलाइन पढने के लिये देखें www.awamehind.com
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

Tuesday, October 27, 2009

जोशीमठ पर है चीन की नज़रः बीपी गौतम

पाकिस्‍तान की औकात हिन्‍दुस्‍तान के सामने मेमने से ज्‍यादा नहीं है। पर हिन्‍दुस्‍तान मेमने जैसे पाकिस्‍तान का कुछ नहीं कर पा रहा है जब कि वह लगातार कश्‍मीर को अपना हिस्‍सा बताये जा रहा है। पाकिस्‍तान के मन में जब आता है तब सीमा पर गोलीबारी कर देता है और जब मन में आता है तब दहशतगर्दों को देश की सीमा पार करा देता है। लेकिन हिन्‍दुस्‍तान कठोरता से विरोध तक दर्ज नहीं करा पाता। यह बात अब हिन्‍दुस्‍तान की नपुंसकता से जोड कर देखी जाने लगी तभी चीन भी हिन्‍दुस्‍तान के खिलाफ राजनितिक व कूटनितिक चालें चलने लगा है। परोक्ष व अपरोक्ष रूप से लगातार दबाव बनाता जा रहा है पर हिन्‍दुस्‍तान अपनी कब्‍जाई जमीन की बात करने की बजाये सिर्फ मूकदर्शक की भांति देख रहा है जब कि चीन की चाल हिन्‍दुस्‍तान की और लगातार बढ़ रही है। चीन की गिद्ध दृष्टि हिन्‍दुस्‍तान की जमीन पर गड़ी हुई है। हालात ऐसे ही रहे तो अरूणाचल प्रदेश ही नहीं बल्कि उत्‍तराखंड, कश्‍मीर और उत्‍तर प्रदेश का रूहेलखंड हिस्‍सा भी एक दिन चीन के नक्‍शे में दिखाई देगा। यह आशंका इस लिय प्रबल होती जा रही है कि जब मेमना पाकिस्‍तान हिन्‍दुस्‍तान से हार मानने को तैयार नहीं तो चीन तो हिन्‍दुस्‍तान के मुकाबले हर क्षेत्र में इक्‍कीस है।

चीन या पाकिस्‍तान की यह तानाशाह वाली नीति है क्‍योंकि कश्‍मीर के लोग जैसे हिन्‍दुस्‍तान को आम हिन्‍दुस्‍तानियों की तरह प्‍यार करते हैं वैसे ही अरूणाचल प्रदेश के लोग भी या चीन की सीमा पर बसे तमाम गांवों के लोगों की आत्‍मा हिन्‍दुस्‍तान में ही बसी है। बार्डर के लोग भले ही दहशत में जीवन गुजार रहे हैं पर प्‍यार हिन्‍दुस्‍तान से ही करते हैं। बात अगर उत्‍तराखंड से शुरू की जाये तो हमारी सभ्‍यता, संसकृति और पुरातन पहचान कराने बाला विश्‍व प्रसिद्ध तीर्थ बद्रीनाथ धाम चीन के बार्डर से मात्र चालीस किमी दूर है। बद्रीनाथ धाम से करीब दो किमी आगे माना गांव है। चीन की सेनाओं का भय यहां के लोगों को भी सताता रहता है फिर भी वह कभी चीन के कब्‍जे में जाने को तैयार नहीं है। यह उनकी आत्‍मा की आवाज है। पर जो लोग वहां नहीं गये हैं वह इस बात पर अविश्‍वास भी जता सकते हैं। ऐसे लोगों के लिए उदाहरण के तौर बताना चाहूंगा कि माना गांव के ऊपर गीता को लिखने वाले महामुनि वेद व्‍यास की कुटिया के पास एक चाय की दुकान है जिसका नाम है हिन्‍दुस्‍तान की आखिरी चाय की दुकान। चाय की दुकान का नाम दुकान मालिक की मानसिकता अथवा देशभक्ति दर्शाने को काफी है।

हिन्‍दुस्‍तान की मानसिकता हमेशा बसुधैव कुटुंबकम की रही है। हिन्‍दुस्‍तानी मानव की तो ही छोडिये जीव-जंतु और प्रकृति तक से मानव जैसा ही प्रेम करते हैं। पर विदेशी हमेशा से ही प्रेम की जगह शक्ति की भाषा पसंद करते हैं। इसी लिए हिन्‍दुस्‍तान की उदारता को नपुंसकता समझ बैठते हैं। अब समय बदल गया है इस लिए प्रेम या उदारता से काम नहीं चलेगा। हर हिन्‍दुस्‍तानी चाहता है कि पाकिस्‍तान या चीन से एक बार फैसला हो ही जाना चाहिए। तूफान या यद्ध के दुष्‍परिणाम बाद में दिखाई देते हैं। बार्डर के लोग युद्ध की त्रासदी झेल रहे हैं। आजादी के बाद हिन्‍दुस्‍तान के पास संसाधनों की कमी थी तब चीन ने 1962 में युद्ध थोप दिया और जमीन कब्‍जा कर सीज फायर घोषित कर दिया। यह युद्ध यहां के लोगों के लिए बेरोजगार कर गया क्‍योें कि उससे पहले यहां के लोग आपस में जरूरी चीजों का आदान-प्रदान करते थे। चीजों का इस लिए कि चीन की मुद्रा हिन्‍दुस्‍तान में और हिन्‍दुस्‍तान की मुद्रा चीन में चलाने में मशक्‍कत करनी पडती इस लिए लोग ऊन के बदले दाल, दाल के बदले ऊन, चावल के बदले दाल या और भी जरूरी चीजों को आपस में बदल कर अपने देश के लोगों के बीच बेचते थे। बार्डर के किनारे बसे लोगों का यही मुख्‍य कार्य था। पर युद्ध के बाद से स्थितियां पूरी तरह बदल गयीं। अब इधर से उधर या उधर से इधर हवा भी एक-दूसरे देश की सेनाओं की मर्जी के बर्गर नहीं आती-जाती। इसके बाद भी लोग चाहते हैं कि हर रोज भय के साये में जीने से अच्‍छा है कि एक बार में ही फैसला हो जाये।

बार्डर पर बसे हिन्‍दुस्‍तानी गांवों की तो बात ही छोडिये उस पार तिब्‍बत है। तिब्‍बत भले ही चीन के कब्‍जे में है पर तिब्‍बती अपने को चीनी कहलाने में गाली समझते हैं और तिब्‍बती कहलवाने में गर्व महसूस करते हैं। पूरे बार्डर पर चीन ने आवागमन व्‍यवस्‍था बेहद अच्‍छी कर ली है। युद्ध के बाद ही चीन ने अक्षयचिन से आगे तक सड़क बना ली है। चीन का कब्‍जा वास्‍तव में माना से तीस किमी दूर तक है पर उसके नक्‍शे में बद्रीनाथ ही नहीं जोशीमठ भी दर्शाया जा रहा है। चीन का नक्‍शा बताता है कि वह जोशीमठ में उसकी बार्डर चौकी है। जिसका मतलब है कि वह जोशीमठ तक अपनी सीमा बनाने के लिए लालायित हैं। चीन पाकिस्‍तान की तरह जल्‍दबाजी नहीं करता। वह दूरगामी योजना बना कर पूरी तैयारी के साथ अटैक करता है। चीन जानता है कि स्थितियां अब 1962 जैसी नहीं हैं इसी लिए उसने पहले बार्डर पर बड़े पैमाने पर काम कराया। पहले उसकी तिब्‍बत पर नजर थी तो उसने तिब्‍बत तक मार्ग का निर्माण कराया। तिब्‍बत पर कब्जा करने के बाद चीन ने इस सड़क को अक्षयचिन से जोड दिया और 1962 में युद्ध के दौरान हिन्‍दुस्‍तान का काफी क्षेत्रफल कब्‍जा लिया। यह सड़क फिलहाल लद्दाख से आगे तक निकल चुकी है। जो युद्ध के दोरान चीन के लिए बेहद फायदेमंद साबित होगी। इसी तरह लद्दाख से चीन ने माना बार्डर तक भी सड़क का निर्माण कर लिया है। यह सड़क पुनः अक्षयचिन पहुंचा देती है। चीन की आवागमन व्‍यवस्‍था लोहित, डीबंग, अपर सियांग, अपन सूबांसिरी और तावांग तक अच्‍छी भली है। चीन ने यह सब एक दिन में नहीं कर लिया। यह उसकी युद्ध की तैयारी है। खुफिया एजेंसियों की बात ही छोडिये यह सब हिन्‍दुस्‍तानी सेना की जानकारी में ही हो रहा था पर सवाल उठता है कि हिन्‍दुस्‍तान ने अपने संसाधन जुटाने के लिए चीन की ही तरह अपनी सीमा के गांवों को हेडक्‍वार्टर कयों नहीं बनाया? चीन की ही तरह हिन्‍दुस्‍तानी सीमा में अच्‍छी सडकें क्‍यों नहीं डलवायी गयीं। हालांकि हिन्‍दुस्‍तान की, यातायात व्‍यवस्‍था भी दुरूस्‍त है पर चीन के मुकाबले कुछ नहीं है। चीन ने जब सब कुछ नया किया तब हिन्‍दुस्‍तान को भी अपनी यातायात व्‍ववस्‍था और दुरूस्‍त करनी चाहिए थी। सीमा पर चीन ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली है। इसी लिए वह ऊल-जलूल हरकतें कर हिन्‍दुस्‍तान को लड़ने को उक्‍सा रहा है। जंग का फैसला जंग के बाद ही होता है। इस लिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि कौन जीतेगा पर हर हिन्‍दुस्‍तानी चाहता है कि अपनी जमीन वापस कर ली जाये। हिन्‍दुस्‍तानियों की यह इच्‍छा पूरी होगी, सरकार की इच्‍छा शक्ति को देख कर तो नहीं लगता।
चीन की युद्ध की पूरी तैयारी है इसी लिए वह भारत के अभिन्‍न अंग अरूणाचल प्रदेश को अपना हिस्‍सा बताते हुऐ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा तक पर आपत्ति जता चुका है। फिर वही सवाल उठता है कि जवाब में हिन्‍दुस्‍तान अपनी कब्‍जाई जमीन या सभ्‍यता, संस्‍कृति से मेल खाने वाले तिब्‍बत को अपना हिस्‍सा क्‍यों नहीं बता रहा? यही नरमी पाकिस्‍तान का हौसला बढाती रही हे और अब चीन सीधा गिरेबान पकडने को तैयार है पर हिन्‍दुस्‍तान कुछ नहीं कर पा रहा। चीन का दुस्‍साहस ही है कि उसके सैनिक भारतीय सीमा में आकर नारे लिख गये। नेपाल के शाही परिवार से हिन्‍दुस्‍तान की नजदीकियां विश्‍व जानता है फिर भी हिन्‍दुस्‍तान की नजदीकियां विश्‍व जानता है फिर भी हिन्‍दुस्‍तान ने नेपाल के शाही परिवार से हिन्‍दुस्‍तान की जैसी नजदीकियां थीं वैसी ही मदद भी की होती तो आज नेपाल में यह हालात नहीं होते। जब कि हिन्‍दुस्‍तान अच्‍छी तरह जानता था कि जब माओवादी सत्ता में आयेंगे तो वह चीन या पाकिस्‍तान की अंगुलियों पर ही नाचेंगे। नेपाल के मामले में हिन्‍दुस्‍तान की स्‍ि‍थति स्‍पष्‍ट न होने के ही दुष्‍परिणाम हैं कि आज वहां हिन्‍दुस्‍तान विरोधी हावी हैं और चीन की रेल लाइन को काठमांडू तक लाने को तैयार हैं। हजारों नहीं बल्कि लाखों नेपालियों का चूल्‍हा हिन्‍दुस्‍तान की कृपा से जलता है पर हिन्‍दुस्‍तान ने विपरीत हालात होने के बाद भी नेपालियों के आने पर कोई रोक नहीं लगायी है जिससे हिन्‍दुस्‍तानी मुद्रा लगातार नेपाल में जा रही है। पिछले दिनों सनसनीखेज खुलासा हो चुका है कि नेपाल के शाही परिवार का पुत्र पारस नकली नोटों का सौदागर है जो हिन्‍दुस्‍तान के बाजार में नकली मुद्रा भेज रहा है पर हिन्‍दुस्‍तान की सरकार उचित प्रतिक्रिया तक वयक्‍त नहीं कर सकी। हिन्‍दुस्‍तान की जडों में पाकिस्‍तान पहले से ही तजाब डाल रहा है। ऐसे में नेपाल भी खुलकर कुछ करे उससे पहले हिन्‍दुस्‍तानी सीमाओं को दंरूस्‍त करना होगा। नेपाल आने जाने के लिए एक ऐसी सरल प्रक्रिया शुरू करनी होगी जो आने-जाने वालों का हिसाब रखसके क्‍यों कि नेपाली सीमा का प्रयोग अब चीन और पाकिस्‍तान भी कर सकते हैं या कर रहे हैं। अंत में कहना चाहूंगा कि हिन्‍दुस्‍तान ने अग्नि-5 का परीक्षन कर एक तरह से चीन को माकूल जवाब ही दिया है पर यह कम है। चीन को अभी सिर्फ बेचैनी ही हुई है। हिन्‍दुस्‍तान को कुछ ऐसा करना होगा जिसमें चीन की नींद उड जाये और आगे से हिन्‍दुस्‍तानी सीमा में घुसने का या कुछ भी हरकत करने का दुस्‍साहस न करे। अरूणाचल प्रदेश को या हिन्‍दुस्‍तान के किसी भी हिस्‍से को अपना अंग बताने से पहले हजार बार सोचे। अग्नि-5 को अरूणचल प्रदेश, कश्‍मीर और उत्तराखंड में ही तैनात करना होगा ताकि चीन के साथ पाकिस्‍तान की रूह हमेशा कांपती रहे।


दैनिकः अवाम-ए-हिन्‍द, बुधवार, 21 अक्‍तूबर 2009, पृष्‍ठ 6

Sunday, October 11, 2009

उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग...सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।

कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।
वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बतायी जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।
आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं, वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।
वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आयी और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।
सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।
अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।
इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गये और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।
अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।
उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गयी। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गयी। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।
इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गयी। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गये अपनी जबान ले गये जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।
सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गयी। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।
गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गये वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गये वह आज भी उस इलाके की थाती है।
1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।
वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।
शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गयी। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जाएगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।
उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गये। उनकी कहानी ”रानी केतकी की कहानी” उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
urdoo की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह ‘अख्तर’ का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।
1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से ‘दिल्ली उर्दू अखबार’ और 1856 में लखनऊ से ‘तिलिस्मे लखनऊ’ का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।
कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गयी थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।
आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में
उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दागसारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
गंगा जमुना के दो आब में जन्मी और विकसित हुई इस जबान की ऐतिहासिक यात्रा के बारे में विदेश मंत्रालय की ओर से एक बहुत अच्छी फिल्म बनायी गयी है। इस फिल्म का नाम है, ”उर्दू है जिसका नाम’। इसके निर्देशक हैं सुभाष कपूर। फिल्म की अवधारणा, शोध और कहानी सुहैल हाशमी की है। इस फिल्म में संगीत का इस्तेमाल बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया गया है जिसे प्रसिद्घ गायिका शुभा मुदगल और डा अनीस प्रधान ने संजोया है। शुभा की आवाज में मीर और ग़ालिब की गज़लों को बिलकुल नये अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।
फिल्म पर काम 2003 में शुरू हो गया था और 2007 में बनकर तैयार हो गयी थी। अभी तक दूरदर्शन पर नहीं दिखायी गयी है। इस फिल्म के बनने में सुहैल हाशमी का सबसे ज्‍यादा योगदान था और आजकल वे ही इसे प्राइवेट तौर पर दिखाते हैं। पिछले दिनों प्रेस क्लब दिल्ली में कुछ पत्रकारों को यह फिल्म दिखायी गयी। मैंने भी फिल्म देखी और लगा कि उर्दू के विकास की हर गली से गुजर गया।

आतंकवादी रुखसाना को मार डालेंगे

जम्मू-कश्मीर के राजौरी जिले के कालसी गांव की किशोरी रुखसाना कौसर की बहादुरी के किस्से पूरे देश में सुने जा रहे हैं। उसके परिवार पर हमला करने वालों को अंदाज लग गया है कि जब एक बहादुर लड़की अपनी रक्षा खुद करने का फैसला कर लेती है तो खतरनाक हथियारों से लैस दरिंदे भी हार जाते हैं। रुखसाना से पूछा गया कि इतनी बहादुरी का काम कैसे किया तो विनम्र लड़की ने कहा कि अल्लाह ने मुझे इस मुसीबत की घड़ी में इतनी हिम्मत दी कि मैं उन दहशतगर्दों का मुकाबला कर पाई।


लेकिन उसे डर है कि इतनी बड़ी शिकस्त के बाद दहशतगर्द फिर वापस आएंगे और रुखसाना के परिवार को और खुद उसको जिंदा नहीं छोड़ेंगे। उसने बताया कि गांव के बाहर पुलिस की एक पिकेट लगा दी गई है लेकिन उसको आशंका है कि उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उसको आतंकवादी मार डालेंगे। रुखसाना कौसर एक बहादुर लड़की है। उसने आत्मरक्षा में हथियार छीनकर दहशतगर्दों को बता दिया कि अगर औरत अपनी रक्षा का फैसला कर ले तो खतरनाक हथियारों से लैस आतंकवादी भी उसका कुछ बना बिगाड़ नहीं सकता। लेकिन रुखसाना के मन में जो डर है वह एक बहुत बड़ी समस्या की ओर इशारा करता है।


पिछले 20 साल से कश्मीर में चल रहे आतंकवाद के खेल में आम आदमी की कोई हैसियत नहीं है। सरकार ने कभी भी आम आदमी को शामिल करने की कोशिश नहीं की। जिस मुस्तैदी से वहां सैनिक ताकत का इस्तेमाल करके समस्या को सुलझाने की कोशिश की गई वह हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। कश्मीरी अवाम को भरोसे में लेकर अगर कोशिश की गयी होती तो जम्मू-कश्मीर में हर इंसान अपने हित को सुरक्षित करने के लिए हुकूमत के साथ होता। यह प्रयोग वहां पर सफलतापूर्पक किया जा चुका है। 1947 में जब आजादी मिली तो पाकिस्तान ने कश्मीर पर दावा ठोका था। कश्मीर के राजा हरि सिंह भी दुविधा में थे, कभी स्वतंत्र कश्मीर की बात करते थे, कभी भारत के साथ आने की तो कभी पाकिस्तान के साथ जाने की सोचते थे। इस बीच पाकिस्तानी सेना के सहयोग से कबायलियों का हमला हो गया और हरिसिंह डर गये। उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। सरदार पटेल ने मदद तो दी लेकिन शर्त लगा दी कि आप अपनी मर्जी से भारत के साथ कश्मीर के विलय के कागजों पर दस्तखत कर दें तभी भारतीय सेना वहां जायेगी।


शेख अब्दुल्ला उन दिनों कश्मीरी जनता के हीरो थे। वे भारत के साथ रहना चाहते थे इसलिए पूरा कश्मीरी अवाम भारत के साथ रहना चाहता था। बहरहाल जनता को साथ लेकर चलने से कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया। कश्मीर के राजा हरिसिंह की मरजी के खिलाफ भी शेख साहब ने जनता को अपने साथ रखा। 1953 में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद सब कुछ बिगड़ गया। उसके बाद तो दिल्ली की सरकारों ने गलतियों पर गलतियां कीं और कश्मीर में केंद्र सरकार के प्रति मुहब्बत खत्म होती गयी। उधर पाकिस्तान ने प्राक्सी वार के जरिए कश्मीर में खून खराबे को बढ़ावा दिया। रुखसाना कौसर का दूसरा डर यह है कि आतंकवादी फिर आएंगे और उसे मार डालेंगे। भारत सरकार के लिए यह मौका है कि वह साबित कर दे कि वह कश्मीरी अवाम की हिफाजत के लिए कुछ भी कर सकती है। रुखसाना की सुरक्षा के लिए वहीं पुलिस पिकेट बना देना कोई बहुत अच्छी योजना नहीं है। इस देश में हजारों लोग ऐसे हैं जिनको चौबीस घंटे की सरकारी सुरक्षा दी जाती है। बहुत सारे ऐसे लोग भी है जिन्हें राज्यों की राजधानियों में जगह दी जाती है जहां वे रह सकें। हजारों विधायकों को शहरों में सभी सुविधाओं से लैस मकान दिए जाते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि वे जनहित और राष्ट्रहित में काम कर रहे हैं। इसलिए उनको सारी सरकारी सुविधाएं दी जा रही हैं। वे सारी सुविधाएं रुखसाना और उसके परिवार को भी दी जा सकती हैं क्योंकि जो काम उसने कर दिखाया है वह बड़े बड़े सूरमा नहीं कर सकते है। उसका काम भी जनहित और राष्ट्रहित का है दरअसल रुखसाना की बहादुरी ने जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की सफलता के सवाल पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है।


सच्चाई यह है कि आतंकवादी जमातों ने कश्मीर की जनता के दिमाग में यह दहशत पैदा कर दी थी कि उनको बचाने वाला कोई नहीं है और आम तौर पर लोग डर गए थे। वरना अगर आतंकवाद के शुरुआती दौर में ही लोगों ने मुकाबला किया होता तो दहशतगर्दी के सफल होने की सारी संभावना खत्म हो गई होती। दुनिया भर में आतंकवाद वहीं सफल होता है जहां हुकूमत आम आदमी से कट चुकी होती है और आम आदमी को भरोसा नहीं होता कि सरकार उनकी हिफाजत कर सकेगी। जम्मू कश्मीर में यही हालत थी और आतंकवाद लगभग सफल हो गया। लेकिन रुखसाना कौसर की बहादुरी ने सरकार को एक बेहतरीन मौका दिया है। रुखसाना ने वह कर दिखाया है जो सरकार के कई विभाग नहीं कर सके। सरकार को चाहिए कि वह रुखसाना के परिवार को इतनी सुविधा दे और इतनी इज्जत दे कि पूरे राज्य में यह माहौल बन जाय कि अगर आतंकवाद का सामना हिम्मत से किया जाय तो बाकी जिंदगी बहुत ही अच्छी हो सकती है। अगर इस तरह का माहौल बन गया तो इस बात की पूरी संभावना है कि हर गांव से बहादुर लड़के लड़कियां आगे आएंगे और आतंकवाद का मुकाबला हर मोड़ पर किया जायेगा। इसका फायदा यह होगा कि जनसमर्थन का मुगालता पालने वाले आतंकवादी संगठनों को औकातबोध हो जायेगा। वे आम आदमी को निशाना बनाने की हिम्मत नहीं करेंगे। जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की तैनाती के नाम पर होने वाले खर्च में भी कटौती होगी और कश्मीर में फिर से अमन चैन कायम हो जाएगा।

01 October, 2009

http://www.visfot.com/index.php/voice_for_justice/1700.html

---

चित्र

8 अक्‍तूबर 'अवाम-ए-हिंद

www.awamehindi.com